रांची, ऑफबीट संवाददाता: सरहुल की शोभायात्रा 24 मार्च को निकलेगी लेकिन आज से ही सरहुल शुरू हो गया है. सरहुल के अनुष्ठान विधि विधान की शुरुआत हो गयी. सरहुल पर्व के पीछे कई परंपरा, मान्यता और विश्वास छिपा है. सरहुल के नाम का अर्थ देखें तो पायेंगे सर का अर्थ है सरई या सखुआ का फूल और हूल का अर्थ है क्रांति. इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया. इस कई भाषाओं में अलग- अलग नाम से जाना जाता है. मुंडारी, संताली और हो-भाषा में सरहुल को ‘बा’ या ‘बाहा पोरोब’, खड़िया में ‘जांकोर’, कुड़ुख में ‘खद्दी’ या ‘खेखेल बेंजा’ जबकि नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली में यह ‘सरहुल’ के नाम से ही जाना जाता है.
आज केकड़ा और मछली पकड़ेंगे युवा
आज सरहुल की शुरुआत के दिन युवा केकड़ा और मछली पकड़ने के लिए निकलेंगे. इसके पीछे इनकी मान्यता है कि मछली और केकड़े ने ही समुद्र के नीचे की मिट्टी को ऊपर लाकर यह धरती बनायी है. फसल की बुवाई के समय इन नर और मादा केकड़ों का चूर्ण बीजों के साथ बोया जाता है, इस आस्था के साथ कि जिस तरह केकड़े के अनगिनत बच्चे होते हैं, उसी तरह फसल भी बड़ी मात्रा में होगी मान्यता यह भी है कि एक बार जब भयंकर अनावृष्टि हुई थी, तब मानव ने ककड़ोलता (केकड़े की रहने की जगह) में जाकर अपने प्राणों की रक्षा की थी.
आज के दिन पूरा परिवार उपवास रखता है. दूसरी बेला में पुरखों को खाना अर्पित किया जाता है जिसमें तेल के बनी चावल की रोटी, पानी और तपावन (हड़िया) दिया जाता है. इसके बाद सबसे पहले परिवार का मुखिया अन्न ग्रहन करता है. शाम को लेगभग 7 बजे के आसपास पाहन सहयोगियों के साथ जल रखाई पूजा का पानी लाने के लिए नदी, तालाब या चुआं जाते हैं. सहयोगी पानी लेकर सरना स्थल में वहां विधि-विधान के दो घड़ों में पानी रख देते हैं. पारंपरिक रीति-रिवाज से धुवन-धूप करेंगे, गोबर लीप कर स्थल को पवित्र कर दिया जाता है. मिट्टी का दीप जलाकर चावल और साल के फूल को घड़ा के जल में डाला जाता है. इसके साथ ही कई और विधि विधान होते हैं.
ये भी पढ़िए…