रांची, बिजय जैन। शनिवार को वासुपूज्य जिनालय के प्रांगण में गणिनी आर्यिका १०५ विभाश्री माताजी ने अपने प्रवचन में कहा– गलत स्थान पर पहुंचकर भी अपने मन को संभाल कर रखना बहुत कठिन होता है इसलिए कहा है संगति का बहुत बड़ा असर होता है. यदि हम अपनी आत्मा का हित चाहते है तो हमें अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए. जिस प्रकार की हम संगति में रहते हैं, उसी के अनुसार हमारे विचार हो जाते हैं.
यदि हम बुरे लोगों के साथ रहते हैं, तो उनके गुण हमारे अंदर अवश्य आते हैं. जिस प्रकार अग्नि के पास में पानी रखने पर वह गर्म हो जाता है, उसी प्रकार बुरे व्यक्तियों की संगति से उनके गुण हममें आ जाते हैं. दुष्टों की संगत से शिष्ट व्यक्ति भी दुष्ट हो जाता है. इसलिए हमें अच्छी संगत में रहना चाहिए. जिस घर में प्रेम बना रहता है, उस घर में यश, शांति और समृद्धि अपने आप चले आते हैं. हमारा समाज सर्वे भवंतु सुखिन: की भावना पर चलता है. हम सभी के लिए सुखों की कामना करते हैं. ये कामना करने से किसी को सुख मिले या ना मिले, लेकिन कामना करने वाले को आत्मिक सुख जरूर मिलता है. संतो के समागम से जीवन में शांति मिलती है भव भवों के संचित कर्म क्षय को जाते हैं. परिणामों में निर्मलता आती है. प्रभु का भजन और प्रभु की भक्ति जो जीवन में कर लेते हैं उनका जीवन महान बन जाता है. एक दिन वह भी भगवान बन जाता है. भक्त भगवान से कहता है कि हे भगवन् आपकी दृष्टि थोड़ी सी मेरे ऊपर पड़ जाए तो मैं इस संसार सागर से पार हो जाऊंगा. आपने जैसी दृष्टि बनाई मेरी भी दृष्टि वैसी बन जाए, हे भगवन् आप मेरे नयन पथ गामी बनो अर्थात मुझे रास्ता दिखाने वाले आप बन जाओ तो मेरा निश्चित ही कल्याण हो जाएगा.

आगे कहा प्रभू भक्ति के सहारे व्यक्ति पत्थर को मोम, अग्नि को नीर, विष को अमृत तथा शत्रु को मित्र बना लेता है अत: प्रभु की भक्ति में अपना समय देना चाहिए, पहले देव पूजा फिर काम दूजा करना चाहिए परन्तु आज कल व्यक्ति पहले पेट पूजा फिर काम दूजा का कार्य करता है. भगवान की पूजा करते समय यदि कर्म का बन्ध होगा तो नियम से वज्र वृषभ नाराच संहनन का बन्ध होगा अर्थात ऐसा शरीर प्राप्त होगा जो वज्र का होगा. जैसे बाहुबली भगवान एक वर्ष तक खड़े होकर ध्यान करते रहते रहे लेकिन उनके पैरों में कम्पन नहीं हुआ. ऐसे हमें भी शरीर की इतनी शक्ति प्राप्त होगी कि हम कठिन से कठिन तप कर सकते है. आलसी व्यक्ति कभी भी भगवान की पूजा ‘ नहीं कर सकता और गुरूओं की सेवा -सुश्रुषा नहीं कर सकता है. हमें यह जीवन बार-बार नहीं मिलता। मानव जीवन दुर्लभ है. इस जीवन को कैसे सार्थक बनाएं इस पर आत्म – मंथन करना चाहिए. सदा अच्छे मित्रों, साथियों तथा सज्जन व्यक्तियों के संपर्क में रहने से उन्हीं की सगंति एवम् आचरण का प्रभाव होता है, उसी प्रकार बुरे व्यक्तियों की संगति से उनके गुण हमारे अंदर आ जाते हैं.
