अयोध्या। अतंरिक्ष विज्ञानियों की राय पर श्यामल पाषाण से तैयार हुई अयोध्या के श्रीरामजन्म भूमि के नव-प्रतिष्ठित श्रीरामलला के विग्रह की लम्बाई और स्थापना की ऊंचाई के विशेष मायने हैं। बहुत सारी विशेषताओं को खुद में समाहित किये हुए है। न सिर्फ हर रामनवमी की दोपहर 12 बजे सूर्यवंशी श्रीरामलला के विग्रह के मस्तक पर भगवान सूर्य की किरणें आभा बिखेरेंगी, बल्कि विग्रह के दाएं और बांये भाग में दशावतारों के दर्शन भी होंगे। हिन्दुस्थान समाचार के मुख्य उप संपादक आमोदकांत मिश्र ने यह जानने की कोशिश की। आइये, साहित्य भूषण से सम्मानित साहित्यकार प्रमोदकांत मिश्र की नजरों में इन दशावतारों का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक आधार जानते हैं।
सनातन धर्म में अवतारों का विधान है। कैसे देखते हैं इसे?
विश्व-धराधाम पर भारतवर्ष, साहित्य-संस्कृति-सभ्यता-संगीत-कला-विज्ञान-गणित-आध्यात्म-ज्योतिष आदि के विकास की दृष्टियों से सर्वाधिक प्राचीन एवं समुन्नत राष्ट्र है। त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने समस्त लोकों को अपनी दिव्य शक्तियों के बल पर अनन्तकाल के लिए न केवल धारण कर रखा है, बल्कि इसे अनुशासन की वल्गा से संचालित भी कर रखा है। भगवान विष्णु ने समय-समय पर भिन्न-भिन्न रूपों में चौबीस अवतार लिया। पृथ्वी, साधु-संतों और जीव मात्र की रक्षा की तथा विकसनशील सृष्टि-क्रम को क्रमश: अग्रसर किया।
श्रीरामलला के विग्रह के दाएं और बांये भाग में दशावतारों को उत्कीर्ण किया गया है। ऐसा क्यों?
दशावतारों में क्रमश: मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि प्रमुखतः सम्मिलित हैं। भारतीय संस्कृति के प्रमुख घटक व तत्त्व आर्ष ग्रंथों के माध्यम से ये प्राय: प्रतीकों के जरिये व्यक्त हुए हैं। इनके मर्म को समझने के लिए बुद्धि का कुशाग्र होना अपेक्षित और आवश्यक है। अवतारों की पृष्ठभूमि में पृथ्वी पर जीव की चेतना के क्रमिक विकास को रखना युक्ति संगत है। इसी से सृष्टि का अभ्युदय भी माना जा सकता है। श्रीराम भी उसके वाहक हैं।
सृष्टि का अभ्युदय कैसे?
आप जैसा व्यक्ति आसानी से नहीं मानेगा। हां, आपकी नजर में यह पूरी तरह से आध्यात्मिक अथवा धार्मिक हो सकता है, लेकिन इसके वैज्ञानिक आधार हैं। इनका वर्णन वेदों-पुराणों में है। वह भी वैज्ञानिकता की कसौटी बिलकुल खरे हैं।
अवतारों के विधान से सृष्टि का जुड़ाव कैसे है?
भगवान विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में प्रथम मत्स्यावतार है। महाराज वैवस्वत मनु द्वारा नदी-जल से दैनिक तर्पण करते समय उनकी अञ्जलि में एक छोटी-सी मछली आ गयी। मछली-जैसे छोटे जीव की सुरक्षा और पोषण के आश्वासन के साथ महाराज मनु उसे राजमहल ले गये, किन्तु कुछ समय बाद ही मछली के आकार-प्रकार में अनपेक्षित विस्तार होने लगा। रख-रखाव में धन और शक्ति-सामर्थ्य-दोनों अपर्याप्त सिद्ध हुए। फिर, मनु ने उसे समुद्र के जल में व्यवस्थित कर दिया, लेकिन उन्हें इस बात का आभास हो गया कि यह कोई सामान्य मत्स्य नहीं है। उन्हें यह प्रतीत हो गया था कि भगवान विष्णु ने जगत के उद्धार का यह उपक्रम किया है। कालांतर में इसी महामत्स्य ने महाराज मनु और अन्य जीव-जगत की रक्षा की और सृष्टि क्रम को अग्रसर किया।
‘मत्स्यावतार’ सृष्टि के अभ्युदय में कैसे सहयोगी रहा?
यूँ तो सृष्टि के सृजन-विनाश का क्रम चलता रहता है, सत-असत के अस्तित्व-अनस्तित्व की क्रीड़ा गतिमती रहती है, किन्तु यह सब सुदीर्घ कालावधि में घटित होता है। धरा-धाम पर काल-क्रम के अवक्षेप से प्राकृतिक, दैवीय, मानवकृत अभ्युदय-विसंगतियां उपस्थित होती रहतीं है। लेकिन मनुष्य अभी इतना सामर्थ्यवान नहीं है कि वह इन सारी समस्याओं का निदान स्वयं कर सके। प्रलयकालीन जल-प्लावन की स्थिति में जलचर जीव मत्स्य की सहयोगी भूमिका के अभाव में सृष्टि का शीघ्र स्पन्दन संभव नहीं था। मनुष्य के संपर्क-सहयोग में आया यह प्रथम जलचर-महामत्स्य ही सृष्टि में सहायोगी बना। इसकी दंष्ट्रा में देव-निर्मित नौका को बाँध कर अन्य जीवधारियों के साथ महाराज मनु ने सम्पूर्ण सृष्टि को एक साथ लय होने से बचा लिया। दूसरा अवतार, कूर्म या कच्छप है। जल और थल-दोनों पर समान रूप से गति करने वाला था। भगवान विष्णु ने कच्छप रूप धारण किया और अपने वज्र-सरीखे कमठ-पृष्ठ पर मंदराचल को धारण कर लिया। देवासुर का समुद्र-मंथन सुसम्पन्न कराया। सुर-असुर-मानव सभी का उपकार हुआ। यह प्रदुर्भाव, देव, दनुज, मनुज की अनपेक्षित सहायता करने वाले ”कूर्म” नामधारी अवतारी पहले जलचर-थलचर जीव का था।
सहज मानव मन इसे नहीं मानेगा। आगे के अवतार भी क्या…
हाँ, यह सही बात है कि भारतीय जन-मानस में दिव्यावतार के संदर्भ प्रायः चर्चाएं होती हैं। आपको बताऊँ कि अतीत के जटिल प्रश्नों का सामाहार सूक्ष्मान्वेषण पूर्वक हुआ है। ऋषि-महर्षियों ने सम्यक एवं सूक्ष्म गणितीय सिद्धान्तों द्वारा सौर मंडल की ग्रह-गणना के अतिरिक्त धरती पर उद्भूत जीवों-वनस्पतियों के जीवन-मरण, उनके क्रमिक विकास, गुणावगुण, हानि-लाभ आदि मनुष्य के उर्वर मस्तिष्क में उभरने वाले प्रश्नों का हल ढूँढा है। जल और थल भाग पर जीव के चक्षुगोचर विकास के क्रम में तृतीय स्थान पर वराह को अधिष्ठित हुआ। वह द्वि-पद से चतुष्पद होने की यात्रा का श्रीगणेश था। यह सृष्टि का विकासित होता स्वरूप ही तो है।
रामावतार को किस प्रकार देखना उचित होगा?
राम का सम्पूर्ण चरित्र आत्मिकता, अध्यात्मिकता, सांस्कृतिक, मानवीय, राष्ट्रीय एवं लोकातंत्रिक मूल्यों की मूलभित्ति है। सबसे पहले भगवान ‘राम’ के नामकरण पर विचार कीजिये। राम की पृष्ठभूमि में ‘र’, ‘आ’ और ‘म’ की ध्वनि है। यह बहुत ही दिव्य व रहस्यमयी है। प्रथम तो विष्णु के अग्निवंशी (‘र’ अग्नि बीज) परशुरामावतार के बाद आदित्यवंशी (‘आ’ आदित्य बीज) दशरथनंदन राम और तत्पश्चात चन्द्रवंशाविर्भूत (‘म’ चन्द्र बीज) श्रीकृष्ण का आगमन। इस तरह परशुरामावतार, रामावतार और कृष्णावतार; तीनों ही राम में समाहित हैं। इसे भी सृष्टि या जीवधारियों के विकास क्रम के रूप में देखा जा सकता है। परशुराम तीन कलाओं से परिपूर्ण थे तो श्रीराम बारह और श्रीकृष्ण सोलह कलाओं में। यह गुणों के विकासित होने का क्रम कहा जा सकता है। इसे पृथ्वी की कक्षा में अवतीर्ण ऊर्जा-चेतना की क्रमिक सांद्रता की ओर संकेत के रूप में भी समझा जा सकता है। चेतना के क्रम-विकास में मानव जाति का प्रथम संसर्ग अवश्य ही हुताशन अग्नि से हुआ होगा। सूर्य की अक्षय-अखण्ड ऊर्जा और प्रखर प्रकाश का आनन्द वह युगान्तर की व्यापक साधना व जीवनानुभव से ले सकने में सक्षम हुआ। चंद्रवंश में आविर्भूत होकर श्रीकृष्ण ने उसकी सोलह कलाओं को लोकानुरंजन एवं लोक कल्याण में विकीर्ण कर दिया। ”राम” पद क्रमबोधक, इतिहासबोधक और क्रमागत चेतना के विस्तार का पर्याय है।
कल्कि अवतार कैसा होगा?
देखिये, प्रकाश के मुख्यत: तीन स्रोत हैं। अग्नि, सूर्य और चंद्र। इधर, कलयुग दूषित विचारों और कर्मों का काल है। इसे अच्छे विचारों और कर्मों से ही मुक्त किया जा सकता है। इसमें धर्म का एक चरण ही विद्यमान माना गया है। महात्मा बुद्ध ने भी अपने जीवनकाल में ही संघ को महत्वपूर्ण माना और संघ के माध्यम से ही कलयुग के दुष्प्रभाव को कम करने का उन्नत मार्ग या उपाय सुझाया। विष्णु ने अब तक देहधारी अवतारों के जरिये सत्य, धर्म, न्याय, समता, सदाचार, मानवता, शील आदि सद्गुणों की रक्षा करते हुए राष्ट्र को समुन्नत-सुरक्षित किया है। अब ऐसा प्रतीत होता है कि कल्कि अवतार के द्वारा वैचारिक जगत में ही धर्म को प्रतिष्ठित करते हुए मानव जाति को वसुधैव कुटुम्बकम की भावना की ओर उन्मुख किया जा सकेगा। दसवें अवतार का लक्ष्य पूर्ण होगा। भारतीय संस्कृति के अनुकूल जीवन-मूल्यों व मानदण्डों को संपुष्टि देगा। सच कहूं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) वही कर रहा है।
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