रांची, विष्णु पांडेय। रांची विश्वविद्यालय के बांग्ला विभाग में सोमवार को बांग्ला भाषा की कवियत्री आशापूर्णा देवी की जन्मदिन मनाई गई। इस आयोजन पर विभाग के एचओडी डा. निवेदिता सेन ने कहा कि झारखंड, बिहार और बंगाल में बहुत से ऐसे कवि और उपन्यासकार हुए जिनके बारे में लोगों को कम ही पता होगा। अपनी रचनाओं की बदौलत इन्होंने अलग मुकाम हासिल किया। बांग्ला भाषा की ऐसी ही एक कवियत्री थी आशापूर्णा देवी। जिन्होंने मात्र 13 वर्ष की उम्र में लिखना शुरू किया और आजीवन साहित्य रचना से जुड़ी रहीं। आशापूर्णा देवी का जन्म आठ जनवरी 1909 को बंगाल प्रांत के उतरी कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता का नाम हरेंद्र गुप्ता था, पिता भी एक कलाकार थे। जिस कारण कला के गुण उन्हें पिता से मिले। माता सरोला सुंदरी एक शिक्षित परिवार से थीं। आशापूर्णा देवी ने हर उम्र के पाठक को ध्यान में रखते हुए कहानियां लिखी। उन्होंने बच्चों के लिए ‘छोटे ठाकुरदास की काशी यात्रा’ पुस्तक लिखी, जो साल 1938 प्रकाशित की गई। इसके अलावा उन्होंने साल 1937 में पहली बार वयस्कों के लिए ‘पत्नी और प्रेयसी’जैसी कहानी भी लिखी।
निवेदिता ने आगे बताया आशापूर्णा देवी का पहला उपन्यास साल ‘प्रेम और प्रयोजन’ था, जो साल 1944 में प्रकाशित हुआ। साहित्य को अपना जीवन समर्पित करने के बाद आखिरकार 13 जुलाई साल 1995 को आशापूर्णा ने दुनिया से अलविदा कर दिया। आज भी उन्हें पहली महिला ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता के रूप में याद किया जाता है। आपको हमारा यह आर्टिकल अगर पसंद है तो इसे लाइक और शेयर करें, साथ ही ऐसी जानकारियों के लिए जुड़े रहें हर जिंदगी के साथ।

बांग्ला विभाग के लेक्चरर डॉक्टर पीआर लाहा बताते है कि आशापूर्णा का बचपन वृंदावन बसु गली में बीता। यहां पर परंपरागत और रूढ़िवादी परिवार रहते थे। उनकी दादी की चलती थी, जो पुराने रीति-रिवाजों और रूढ़िवादी आदर्शों की कट्टर समर्थक थीं। यही नहीं उस समय घर की लड़कियों को स्कूल तक जाना मना था और लड़कों को पढ़ाने के लिए भी घर पर ही शिक्षक आते थे। जब आशापूर्णा देवी बच्ची थीं, तब अपने भाइयों के पढ़ने के दौरान वह भी उसे सुनती थीं। इस प्रकार उन्होंने अपनी आरंभिक शिक्षा ग्रहण की। बाद में उनके पिता अपने परिवार के साथ दूसरी जगह चले गए। यहां उनकी पत्नी और बेटियों को स्वतंत्र माहौल मिला। उन्हें पुस्तकें पढ़ने का भी मौका मिला। आशापूर्णा के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, लेकिन वह स्व-शिक्षित थीं। आशापूर्णा बचपन में अपनी बहनों के साथ कविताएं लिखती थीं।
चोरी-छिपे प्रकाशित कराई थी कविता
आशापूर्णा ने अपनी एक कविता ‘बाइरेर डाक’, ‘शिशु साथी’ के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को वर्ष 1922 में चोरी-चुपके प्रकाशित करने के लिए दी। इसके बाद संपादक ने उनसे और कविताएं और कहानियां लिखने का अनुरोध किया। यहीं से उनका साहित्यिक लेखन शुरू हो गया था। 1976 में आशापूर्णा देवी को प्रथम प्रतिश्रुति के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने इन्हें पद्मश्री से भी नवाजा।
आशापूर्णा देवी की कहानियां स्त्रियों पर किए गए उत्पीड़न को उधेड़ती और एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने की अपील करती हैं। उनकी तीन प्रमुख कृतियां- प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और कबुल कथा समान अधिकार हासिल करने के लिए महिलाओं के अनंत संघर्ष की कहानियां हैं। डॉ कविता विकास के साथ ही धनबाद की कवियत्री मंजू शरण, मीतू सिन्हा और नीरज वर्णवाल ने भी आशापूर्ण देवी की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित की।
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