रांची, बिजय जैन : गणिनी आर्यिका विभाश्री माताजी ने वासुपूज्य जिनालय के प्रांगण में प्रातः कालीन प्रवचन के दौरान दिनांक 11 जुलाई को सर्वप्रथम तत्वार्थ सूत्र शिविर में लेश्याओ के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहा गया है. मन, वचन और काया की हलचलों (योग) पर जब कषायों का रंग चढ़ जाता है, तो उस कषाय रंजित योग को लेश्या कहा जाता है. हमारे मन के भावों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है. अच्छे और बुरे अथवा शुभ और अशुभ, कृष्ण लेश्या के परिणाम वाला व्यक्ति अपने परिवार जनों, अपने रिश्तेदारों को, अपना हित करने वाले को भी मौत के घाट उतार देता है, जब व्यक्ति के शरीर में वेदना होती है तो व्यक्ति कुछ भी करने को तैयार हो जाता है. हम अपनी दिनचर्या में हिंसक वस्तुओं का उपयोग खान-पान में करते हैं. जैसे फलों की डिजाइन जानवरों के रूप में कटिंग करते हैं, कॉफी में व्यक्ति का चेहरा बना देते है. डोसा आदि में मनुष्य के चेहरे बना देते हैं. इन सब में वस्तु की हिंसा न होते हुए भी हिंसा का दोष लगता है. आयुहीन को औषधि लगे न लेश. त्यों ही रागी पुरुष को, व्यथा धर्म उपदेश.
अगर आयु कर्म शेष नहीं है तो आप जितने भी प्रयास कर लो या जितनी भी औषधि ले लो वह शरीर को लगने वाली नहीं है. वेदना का प्रतिकार करें, कोशिश करें कि हम बीमार ही ना हो, वेदना में मरने मारने का भाव जब आ जाता है तो संक्लेश परिणाम के द्वारा आर्तध्यान होता है. जब कत्ल खाने में पशु एक दूसरे को मरते हुए देखते है तब उसके परिणाम संक्लेशित हो जाते है, यदि पशुओं का वश चले तो वह भी मारने वाले को मार दे. ऐसा क्रूर परिणाम हो जाता है. परिणाम की क्रूरता तो जीव में स्वत ही पैदा हो जाती है. परिणामों की विशुद्धता के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है, प्रवचन सुनना पड़ता है, जिस प्रकार पानी नीचे की तरफ अपने आप बह जाता है लेकिन ऊपर चढ़ाने के लिए मशीन लगानी पड़ती है. वेदना यदि हो रही है, पीड़ा बढ़ रही है तो अपने पास एक ही उपाय है वह भगवान का स्मरण.