हजारीबाग, (डॉ. अमरनाथ पाठक)। गोला प्रखंड अन्तर्गत बरलंगा पंचायत के रौ-रौ ग्राम के नेमरा टोला में एक आदिवासी परिवार निवास करता है। इस परिवार के मुखिया स्व. सोबरन मांझी राजा के लिए जनता से कर वसूली का कार्य किया करते थे। जनता के शोषण का यह कार्य इन्हें पसंद नहीं आया, और वे इस कार्य को छोड़कर गाँव के विद्यालय में अध्यापन का कार्य करने लगे।
स्व. सोबरन मांझी को क्या पता था कि पाँच पुत्रों को जन्म देने वाली उनकी पत्नी सोना (मनी) ने 1942 में द्वितीय पुत्र के रूप में हीरे को जन्म दिया है। प्रथम पुत्र राम (राजाराम मांझी) के बाद उस धर्मनिष्ठ परिवार ने दूसरे पुत्र का नाम शिव (शिवचरण लाल मांझी) रखा। भगवान शंकर की तरह हलाहल पान करने वाले शिवचरण को परिवार के सदस्यों का स्नेह एवं साथियों के प्रेम ने शिबू बना डाला। आज वह केवल परिवार के सदस्यों और साथियों के लिए ही नहीं जन-जन के लिए शिबू हैं। शिवचरण नाम केवल विद्यालय के अभिलेखों में बंद है।
गाँव में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाले सोबरन सामन्तवादी प्रवृत्ति के लोगों की आँखों में खटकने लगे, अन्ततः 27 नवम्बर, 1957 को गाँव के बगल में ही कुछ अज्ञात लोगों द्वारा उन्हें सदा के लिए खामोश कर दिया गया। उस समय शिबू राज्य संपोषित उच्च विद्यालय गोला के आदिवासी छात्रावास में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। पिता की हत्या ने उन्हें अन्दर से झकझोर कर रख दिया। इस घटना से मर्माहत शिबू ने जहाँ अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी वहीं उनके जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया। और सामन्तवाद के खिलाफ अपना शंख फूंक दिया। महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ प्रारंभ हुई उनकी लड़ाई हर शोषित और पीड़ित जनता के लिए लड़ाई बन गई।

शिबू ने गोला मुरी रोड पर अवस्थित गोमती नदी पर पुल-निर्माण के क्रम में ड़भातू (गोला) के विशू महलों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर अपनी राजनीतिक जीवन की शुरुआत की अन्याय के खिला उठी उनकी आवाज आज तक बंद नहीं हुई। अनेक झंझावात आए पर न्याय के मार्ग पर बढ़ने वाले शिबू खड़े हुए, परंत सामन्ती कचक ने उन्हें मात्र तीन मतों से पराजित कर मनोबल तोड़ने का प्रयास किया। किंतु हर अन्याय और हर कुचक ने शिव के जीवन को सजाया और संवा मनोबल टूटने के स्थान पर मजबूत होता गया। व्यवस्था के खिलाफ उनके मन में आक्रोश उपजा दुष्यन्त कुमार की ये पंक्तियाँ इनके जीवन का आदर्श बन गई अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
जीवन पथ पर साथ निभाने के लिए 1963 ई. में धर्मपत्नी बनकर आ घधकीडीह (धाडिल) निवासी रूपी। जीवन का पथ हो या राजनीति का, हर डगर पर वह शिबू के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल रही है।
केवल राजनीति ही नहीं; सामाजिक सुधार के क्षेत्र में भी इनका संघर्ष जारी रहा। संथालों में फैली आंशक्षा और नशाखोरी की ओर ध्यान केंद्रित कर इस बुराई को दूर करने का अथक् प्रयास इनके द्वारा किया गया। इसी क्रम में इन्होंने 1962 में संथाल-नवयुवक-संघ का गठन माराफारी (बोकारो) में किया। मजदूरी करती महिलाओं के शोषण के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए आदिवासी सुधार समिति का गठन जैना मोड़ (बोकारो) में किया।

दूसरों के दुःख-दर्द को देख शिबू अपना घर द्वार, जगह-जमीन, खेती-बाड़ी सब भूल गए। लेकिन जन्मस्थली नेमरा की धरती उन्हें पुनः अपने पास खींच लाई। 1968 ई. में इन्होंने आँराडीह (गोला) में बारह गाँवों को मिलाकर संथालों की एक बैठक की बैठक में तत्कालीन बन मंत्री बागुन सुम्बई भी शामिल हुए थे। तेनुघाट, गोमिया, कसमार, मगनपुर आदि स्थानों में आदिवासी सुधार समिति के सम्मेलन में सुम्बई उपस्थित थे।
गरीबों और शोषितों का हर आंदोलन शिबू का आंदोलन था। आंदोलनकारी शिबू को कई बार जेल में बंदकर आंदोलन को दबाने की कोशिश की गई। आपात्काल के दौरान इनकी गिरफ्तारी पर इनाम रखा गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए शिबू औराडीह में अपने फुफेरे भाई सरकार मांझी ‘बोड़ोदा’ के यहाँ कभी धोर-धोरा में करम राम मांझी के यहाँ तो कभी डभातू में राम सुन्दर महतो के यहाँ छुपा करते थे। एक बार शिबू ने गिरफ्तारी से बचने के लिए गोला रोड रेलवे स्टेशन पर कूली बनकर बोरा उठाने लगे। पुलिस की पारखी आँखों में धूल झोंककर ये बच निकले। साधु बनकर भी उन्होंने गोला में पुलिस की आँखों में धूल झोंकी।
आंदोलनरत शिबू को गिरफ्तार करने का आदेश धनबाद के तत्कालीन उपायुक्त के.बी. सक्सैना को बिहार सरकार द्वारा दिया गया। किंतु संथालियों के बीच फैले अशिक्षा और नशाखोरी के अंधकार से लड़ने वाले शिबू के साधु प्रयासों
से प्रभावित हो उपायुक्त ने इन्हें एक कर्मठ राजनेता बतलाया। तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र ने उपायुक्त के पत्र को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को प्रेषित कर दिया इन्दिरा जी जैसे पारखी ने इस हीरे को पहचाना। इन्हें पुरस्कृत करने का आदेश बिहार सरकार को दिया। कृषि कार्य हेतु एक ट्रैक्टर आदिवासियों के बीच शिक्षा के प्रसार के लिए एक लाख रुपये और रात्रि पाठशाला के लिए एक सौ लालटेने इन्हें दे दिया गया।
तत्पश्चात शिबू ने टुण्डी (धनबाद) की अपना कार्य क्षेत्र बनाया। दुण्डी प्रखण्ड के पोखरिया में एक आश्रम बनाकर निवास करने लगे और संथालों को शिक्षित करने का कार्य करने लगे। आश्रम का संचालन श्याम मुर्म कर रहे थे। आशिक्षा के अंधकार को दूर करने वाले शिबू संथानों के गुरु बन गए। और तब से ये ‘गुरुजी’ के नाम से विख्यात हो गए। इनके मानसम्मान और सेवा से जलकर मोटरसाइकिल से यात्रा कर रहे गुरुजी पर शोषकों ने जान लेवा हमला कर दिया। इसी क्रम में बचने के लिए वे उफनती बराकर नदी में मोटर साइकिल सहित कूद पड़े। मोटर साइकिल तो वह गई पर गुरुजी नदी पार कर सुरक्षित निकल आए। घटना की जानकारी मिलने पर गुरुजी को देखने हजारों संथाल एकत्र हो गए। आश्चर्य से डूबी भीड़ उन्हें ‘दिशोम’ (भगवान) मानने लगी। तब से गुरुजी के आगे ‘विशोम’ लग गया और वे ‘विशोमगुरु’ बन गए।
संवाल बाहुल संथाल परगना से बार-बार गुरुजी को निमंत्रण मिलने लगा। स्नेहपूर्ण इस निमंत्रण को वे ठुकरा नहीं सके और दुमका पहुँच गए। बताया जाता है कि संथाल परगना क्षेत्र में संथाल गोत्र पर नाम का टाइटल रखा जाता है। वहाँ उनकी जाति के लोग अपने गोत्र के नाम पर टाइटल सोरेन रखते हैं। इन्होंने भी अपना टाइटल बदल दिया और शिबू मांझी से शिबू सोरेन बन गए। इनके परिवार के अन्य सदस्यों ने भी सोरेन टाइटल लिखना आरम्भ कर दिया।
राजनीतिक क्षेत्र में वे स्व. विनोद बिहारी महतो, स्व. निर्मल महतो, ए.के. राय आदि के सम्पर्क में आए और शोषकों, सामन्तों के खिलाफ लड़ते हुए अलग राज्य की लड़ाई लड़ी।
स्व. विनोद बिहारी महतो, ए.के. राय एव शिबू सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया, जिसके अध्यक्ष विनोद बिहारी महतो और सचिव शिबू सोरेन बनाए गए।
4 फरवरी, 1973 ई. को धनबाद के गोल्फ मैदान में झारखंड मुक्ति मोर्चा के विशाल सम्मेलन को प्रथ्तम बार आयोजित कर इन लोगों ने अलग राज्य के कुंद आंदोलन को एक नई गति एवं ऊर्जा प्रदान की।
झारखंड की स्मिता के लिए लड़ने वाले गुरुजी आज झारखंड के पर्याय बन चुके हैं। झारखंड के धरती पुत्र की ओर हर झारखंडी की आँखें लगी हुई हैं। झारखंड का भविष्य केवल गुरुजी के हाथों में ही सुरक्षित है, ऐसा इस क्षेत्र के लोगों का मानना है।
अदम्य इच्छा शक्ति, संघर्ष की क्षमता और त्याग, बलिदान का दूसरा नाम है गुरुजी। झारखंडियों की राह को आलोकित करने के लिए विकास के बुझे हुए दीपक को मात्र एक चिनगारी से प्रज्वलित करने के लिए बैचेन है।
एक चिनगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो, इस दीये में तेल से भींगी हुई बाती तो है।
(लेखक : डॉ. हीरालाल साहा/मनोज कुमार मिश्र)
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