रांची, बिजय जैन। वासुपूज्य जिनालय के प्रांगण में गणिनी आर्यिका विभाश्री ने अपने प्रवचन में कहा जीवन में तीन का विशेष महत्व होता है। घड़ी में तीन सुई होती है जो समय बताती है, जज ऑडर देते समय तीन बार ऑडर ऑडर ऑडर बोलते है। तलाक के समय भी तीन बार बोला जाता है। धर्म और मान्यताओं की बात करें तो सनातन धर्म में श्रृष्टि के रचयिता तीन है ब्रह्मा, विष्णु और महेश साथ ही देवियां भी तीन लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती का अहम स्थान है। धर्म में आरती करनी हो तो तीन बार की जाती है। किसी पवित्र स्थल की परिक्रमा करनी हो तो उसे भी 3 बार करने का विधान है। ऐसे ही जीवन की तीन अवस्थायें होती है बचपन, जवानी, बुढ़ापा। हम संसार में प्रवासी बनकर आये है। निवासी बनकर नहीं आए क्योंकि एक दिन सभी का मृत्यु होना निश्चित है। जिस – जिस का जन्म हुआ उसका मृत्यु निश्चित है। चाहे राजा हो, राणा हो, क्षत्रपति हो सभी को एक दिन इस संसार से जाना है। यह मनुष्य पर्याय में हमें भगवान की भक्ति करने को मिली है।
मनुष्य जीवन बाल्यावस्था, युवावस्था व वृद्धावस्था तीन भागों में बीतता है। बाल्यावस्था में समझ नहीं होने के कारण धर्म-आराधना कठिन होती है। वृद्धावस्था में शरीर इतना कमजोर हो जाता है कि मनुष्य सही तरीके से नहीं चल पाता है और उसे सहारे या लकड़ी की सहायता की जरूरत होती है। इसी कारण ज्ञानीजन कहते हैं कि धर्म-आराधना, तप, तपस्या के लिए शरीर का साथ होना आवश्यक है और बाल्यावस्था व वृद्धावस्था में शरीर का साथ मिलना मुश्किल है। इसलिए जो भी धर्म-आराधना, तप-तपस्या आदि युवा अवस्था में ही संभव है। इस संसार में कोई किसी का नहीं है। इसलिए हमें अपनी आत्मा के कल्याण के लिए, धर्म पुरुषार्थ करना चाहिए। हमनें अपने बच्चों के पालन – पोषण में उनको पढ़ाने – लिखाने में, उनके शादी – विवाह कराने में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया। 60 साल के बाद सरकार भी रिटायर कर देती है। इसी प्रकार हमें भी 60 साल के बाद संसार के कार्यों से निवृत्त होकर धर्म साधना में लीन होना चाहिए।