रांची, बिजय जैन। रविवार को वासुपूज्य जिनालय के प्रांगण में गणिनी आर्यिका विभाश्री माताजी के सानिध्य में रविवारीय फैमिली पूजा हुई। पूजा में भक्तगण सपरिवार शामिल हुए। पूजा के पश्चात प्रवचन के दौरान उन्होंने कहा कि पूरा परिवार एक साथ भगवान की पूजा करते है वह अपने परिवार के साथ स्वर्ग में जाते है और देव बनकर भगवान के समोशरण में जाकर साक्षात तीर्थकर की पूजा करने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। और जो अपने परिवार के साथ भगवान की पूजा करता हैं वह तीर्थंकर के कुलों में उत्पन्न होते है और एक साथ दीक्षा लेकर निर्वाण की सिद्धि कर लेते हैं।
आगे कहा भरत चक्रवर्ती के कुल मिलाकर 102 भाई–बहिन थे। सभी ने दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया। इस संसार में जिनेन्द्र भगवान की मंगलमय आराधना से बड़ी कोई वस्तु नहीं है। ” जिन वन्दनं तुल्यं , अन्य किमपि न विद्यते ” हमारे पापों को काटने वाली हमें सुख प्रदान करने वाली, हमें स्वर्ग और मोक्ष को दिलाने वाली हमारे घर गृहस्थी के कष्टों को दूर करने वाली मात्र केवल एक जिनेन्द्र आराधना है, प्रभु की आराधना में तीन तत्वों का समावेश होता है जिसे उपासना समर्पण, एवम् भावना से संबोधित किया जा सकता है। उपासना का मतलब समर्पण है। जल की एक बूंद जब अपनी हस्ती समुद्र में गिराती है तो वह समुद्र बन जाती है। यह समर्पण है। अपनी हस्ती को समाप्त करना ही समर्पण है। अगर बूंद अपनी हस्ती न समाप्त करे तो वह बूंद ही बनी रहेगी। वह समुद्र नहीं हो सकती है। अध्यात्म में यही भगवान को समर्पण करना उपासना कहलाती है और हमारी भावना किसी पर बन जाए तो इन तीनों का समावेश अराधना में बदल जाती है। जिनेन्द्र भगवान की वन्दना है के बराबर कोई दूसरा काम नहीं है। जिनेंद्र भगवान के दर्शन से निधत्ति और निकाचित कर्मांश स्वरूप मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता हैं।आ.वीरसेन स्वामी ने षटखण्डागम ग्रंथ में लिखा है। प्रभु की दो आंखे, प्रभु को न देख सकी। मिट्टी की है वे आंखे, जो मिट्टी में जा टिकी | ॥ ”
भगवान को देखकर मेरे नेत्र पवित्र हो गए, भगवान की स्तुति सुनकर मेरे कर्ण पवित्र हो गए। भगवान का गुणगान करके मेरा मुख पवित्र हो गया, अष्ट द्रव्य से पूजन करके मेरे हाथ पवित्र हो गए और मंदिर में प्रवेश करके मेरे पैर भी पवित्र हो गए। मूर्तियां विराजमान करना सरल है लेकिन भगवान की पूजा प्रतिदिन करना कठिन है। अपने बच्चों में बचपन से अभिषेक पूजा करने के संस्कार देना हमारा कर्तव्य है। पत्नी अपने पति को धर्म के मार्ग पर लगा दे तो उसका धर्मपत्नी नाम सार्थक हो जाता है।
ये भी पढ़िए…