रांची, बिजय जैन: वासुपूज्य जिनालय के प्रांगण में गणिनी आर्यिका विभाश्री ने अपने प्रवचन में कहा, मन जाये तो जान दे, तू मत जाये शरीर, रसरी डरी कमान में, काह करेगा तीर. ज्ञान हमारी भावनाओं को हमारे आचरण को विशुद्ध करने का साधन है. मनुष्य का मन तथा उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है. मानव का स्वभाव होना चाहिए की अगर सामने वाले का पुण्योदय है तो हम उसका बुरा सोच करके पाप का बंध कर ले लेकिन उसका बुरा नहीं कर सकते.
आगे कहा महापुरुष किसी से बैर धारण नहीं करते. कभी भी दूसरों की सफलता को देखकर हमें ईर्ष्या भाव नहीं रखना चाहिए. हम किसी पुण्यात्माओं के पुण्य को देखकर मात्र ईर्ष्या ही कर सकते हैं. हमें उनसे ईर्ष्या न करके उनसे मित्रता का भाव रखकर अपना पुण्य बढ़ाना चाहिए. हमें दूसरों की उन्नति और विकास को देखकर जलन का भाव नहीं रखना चाहिए. कभी भी मेरे मन में उनके लिए जलन के भाव न रहें. मन में ऐसी भावना हो कि मैं सबके प्रति सत्यता एवं सरलता का व्यवहार करू और जहां तक मुझसे सम्भव हो सके तो मैं अपने इस जीवनकाल में दूसरों की भलाई में लगा रहूं.
मात्सर्य का जो भाव है दूसरे का बुरा करने का जो भाव होता है चाहे, भाई-भाई में हो या सास-बहू में या फिर पति-पत्नि में, चाहे दोस्त-दोस्त में यदि बुरा करने का भाव है तो उसे तुरन्त ही छोड़ देना चहिए. हम दूसरो के दुःख से दुःखी नहीं है बल्कि दूसरो के सुख देखकर हम दुःखी है.
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